हिन्दी शब्दकोश-निर्माण को लेकर एक उधेड़बुन
- (1) हिंदी भाषा का विकास हमारे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के साथ-साथ हुआ, बल्कि गाँधीजी ने तो हिंदी को अखिल भारतीय स्तर पर जनमानस की एकजुटता का हथियार बनाने की कोशिश की। सबसे बड़ी संपर्क-भाषा होने के कारण वह इसे स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे, हालांकि वह समस्त भारतीय भाषाओं को राष्ट्रभाषाओं का ही दर्जा देते थे और उन सबके उन्मुक्त विकास के हिमायती थे। यह सर्वाधिक यथार्थपरक और वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि थी। लेकिन राष्ट्रवाद और ख़ास कर भारतीय राष्ट्रवाद के जो अंतर्विरोध थे उस दुष्चक्र में हिंदी पिस कर रह गयी। हिंदी-उर्दू के दो फाड़ ही नहीं हुए, अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों पर उसके बढ़ते वर्चस्व का आभास दिलाया गया और इस तरह बेमतलब की बदमज़गी पैदा की गयी। साहित्यकारों की जमात भी इससे अछूती नहीं रही। लेकिन ख़ुशी की बात है कि रचनात्मकता के स्तर पर इस ग़लत प्रवृति का स्वतः प्रतिकार भी क्रमशः होता रहा और कहा जा सकता है कि आज राजभाषा होने के चाहे जो नफ़े-नुक़सान हों, हिंदी साहित्य अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यों के साथ पूर्णतः सहकार की भूमिका में है। लिपियों का अंतर होते हुए भी उर्दू से आवाजाही में कोई कमी नहीं है। भाषाई कट्टरताएँ अलग-अलग दूकान चलाने और सियासी दाँवपेंच का ज़रिया भर रह गयी हैं। हिंदी पट्टी की अपनी ज़रूरतों और पूरे देश के पैमाने पर आज भी सबसे बड़ी संपर्क-भाषा के रूप में हिंदी के दुराग्रह-रहित स्वस्थ विकास की ही दरकार है। हिंदी शब्दकोश का निर्माण करते हुए इस जटिल पृष्ठभूमि पर नज़र रखना हमारी पहली ज़रूरत होनी चाहिए।
- (2) वैश्वीकरण के अन्यथा दबावों के तहत हमारे बहुभाषाभाषी और बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र के सामने अंग्रेजी का वर्चस्व फिर नये सिरे से एक चुनौती बन कर उभरा है। हिंग्रेजी कह कर जिसका हम मज़ाक उड़ाते थे वह आज एक लोकप्रिय फ़ैशन बनता जा रहा है और उसे सरकारी मान्यता भी प्राप्त होने लगी है। वैश्वीकरण पर बहस का यह अवसर नहीं है लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अपनी भाषाई समृद्धि और विविधता को इस तरह लील लिये जाने देने की सहिष्णुता कत्तई नहीं बरती जानी चाहिए। व्यावहारिक ज़रूरतों और सांस्कृतिक मेल-मिलाप के नज़रिये से इतर भाषाओं के शब्दों और लबो-लहजे के लिए खिड़कियाँ हमेशा खुली रहें, लेकिन वहाँ भी पहले अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों की दस्तकें जो लगातार सदर दरवाज़े पर पड़ रही हैं उन्हें नज़रअंदाज़ कैसे कर सकते हैं हम? इस बिंदु पर हमें स्पष्ट नीति और कार्ययोजना की ज़रूरत है। वैसे, वैश्वीकरण अपनेआप में एक बड़ी और व्यापक परिघटना है जिसने बहुत सारी नयी अवधारणाएँ और शब्द दिये हैं।
- (3) नागरी प्रचारिणी सभा, भारतीय ज्ञानमंडल और हिंदी साहित्य सम्मेलन के तीन बड़े कोश हमारी अब तक की पूँजी हैं। लेकिन ये तीनों पचास-साठ साल पहले के बने हैं और अतिरिक्त संस्कृतनिष्ठता उनकी सबसे बड़ी सीमा है। ज्ञानमंडल वाले कोश की भूमिका में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि छायावाद के उरूज के दौर में जो संस्कृत का बोलबाला था उसे लेकर हमारे कोशकार बड़े उत्साहित थे। संस्कृत साहित्य और वैद्यकी तक से खोज-खोज कर धराऊँ शब्द निकाले गये और नये शब्द गढ़े भी गये। दूसरे, देश-समाज और ज्ञान-विज्ञान के विकास का बाद का पूरा परिदृश्य अभी अछूता पड़ा है। अलग-अलग क्षेत्रों (domains) में आयी समृद्धि का जायज़ा लेना और सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व देना नये कोश-निर्माण के लिए शायद सबसे ज़रूरी टास्क है। बाद के हरदेव बाहरी वाले कोश में ज्ञान-विज्ञान की नयी शब्दावली समेटने की कोशिश ज़रूर दिखायी देती है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। इस लिहाज़ से भारत सरकार द्वारा बनवाये गये पारिभाषिक कोश उपयोगी हैं। उनकी तीन बड़ी सीमाओं के निवारण के लिए सावधानी बरती जाये तो : (क) इनमें (अँग्रेजी से) अनुवाद-ग्रस्तता का अतिरिक्त दबाव है। (ख) संस्कृत व्याकरण सम्मत होने के बावजूद शब्द-निर्माण में यांत्रिकता है। इस सिलसिले में डा. रघुवीर की हठधर्मिता जग-ज़ाहिर है। (ग) कई सारी प्रविष्टियों में ग़ैर-ज़रूरी सामान्यीकरण और सांप्रदायिक दुराग्रह तक है। भारत सरकार से मान्यता प्राप्त होने की बाध्यता के बावजूद अलग-अलग विषयों के प्रतिनिधित्व के स्तर पर चयन करने और प्रविष्टियों में सुधार करने की छूट हम ले ही सकते हैं। मेरे ख़्याल से अलग-अलग क्षेत्रों (domains) से शब्द-संकलन के मामले में हमें इन सरकारी परिभाषा-कोशों पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। आख़िर इन क्षेत्रों (domains) में किताबी और अकादमिक दुनिया के बाहर भी व्यवहार-व्यापार के बहुत सारे नये शब्द आये हैं।
- (4) अंतिम महत्वपूर्ण मुद्दा है मानकीकरण और एकरूपता की। भारत सरकार द्वारा पेश पुस्तिका की नियमावली पर ज़रूर अमल होना चाहिए, लेकिन कुछ असंगतियों के निवारण के लिए रास्ता भी निकाला जाना चाहिए। दूसरे, वर्तनी संबंधी जो बहुलता और अनियमितता या अराजकता है उस सबके संदर्भ में हमें विचार-विमर्श करके यथोचित तर्क के साथ एक स्थिर रूप प्रस्तुत करना चाहिए।